पिछले हफ्ते अरसो बाद अपना गाँव देखा। सोचा था पूरा बदल गया होगा मगर पाया वही बचपन का गाँव कुछ नए जेवर पहने। उन यादों के एकहिस्से को ग़ज़ल में समेटने की कोशिश -
यहां लोगों का मिट्टी से रिश्ता बाकी है
पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!
हर मुसीबत में लोग भागे चले आते हैं
आदमी का इंसानियत से राब्ता बाकी है !!
एक पैर खड़ा बगुला वैसे हीं तकता है
कीचड़ में भी मछली ज़िंदा बाकी है !!
गाँव के बूढ़े भी नहीं जानते जिसकी उम्र
उस बूढ़े पीपल पे अब भी पत्ता बाकी है !!
डाकिये को आज भी याद है सबका नाम
पुराने मकान पे टंगा लाल डब्बा बाकी है !!
गाँव से बाहर बरगद के नीचे कुएं पे
सबके लिए एक बाल्टी रक्खा बाकी है !!
सूरज से पहले हीं लोगों को जगाता
मंदिर में लटका पुराना घन्टा बाकी है !!
सुबह सुबह खुली हवा में गाती कोयल
शाम को लौटते तोते का जत्था बाकी है !!
पतली क्यारियों के होकर जाते हैं लोग वहाँ
खेतों के बीच देवी स्थान पे लहराता झंडा बाकी है !!
सुबह शाम उठता है धुँआ कुछ आँगन से
पक्के छत पे सूखता कच्चा घड़ा बाकी है !!
पुराने खम्भों पे नयी तारें बिछ गयी हैं
बिजली है फिर भी हाथ वाला पंखा बाकी है !!
फसलों की खशबू साथ ले चलती है हवा
उसमें अब भी वही निश्छलता बाकी है !!
पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!
- पंकज कुमार