वो फिर से मेरे बगल से गुजर गयी… आज वो खाली थी. शायद मेरे ही जैसे किसी का इंतज़ार था उसे. मेरे मन ने भी आवाज़ दी - रुक जा दो मिनट बैठ जा. पर दिमाग ने समझाया नहीं अभी नहीं, अभी बहुत काम है. फिर कभी बैठूंगा. और मैं वहां से चला आया. गाडी के पास आकर दरवाज़ा खोलते समय एक बार मुड कर फिर उधर देखा, वो अभी भी मेरा इंतज़ार कर रही थी. जैसे मुझे बुला रही हो, पर मैंने उसकी पुकार को अनसुना कर दिया.

मुझे याद है, जब से जीवन ने कुछ सोचने समझने काबिल बनाया है, तब से मेरे मन में कहीं एक छुपा हुआ छोटा सा सपना था - कि जब मौका मिलेगा तब किसी ऐसी बेंच पर बैठकर घंटो इधर उधर निहारता रहूँगा, आसमान की तरफ देखूँगा और कुछ समय अपने बीते हुए दिनों को याद करूंगा. कितना सुकून देता था ये सपना. अभी भी ये सपना हर दूसरे दिन देखता हूँ.

बचपन में माँ बाप ने कई बार सपना दिखाया था की बेटा जब बड़े हो जाना, अपनी कमाई करने काबिल हो जाना तब जो जी में आये करना, पर अभी पढ़ाई पर ध्यान दो. तो मन के सारे सपनों को भविष्य के लिए स्थगित करके मन के किसी कोने में बंद कर दिया करता था. मेरे बाल मन को विश्वास था कि कभी तो वो दिन आएगा जब मैं सिर्फ अपने सपनों के लिए जियूँगा.

आज उस बेंच को देखकर वो सारे सपने एक पल में आँखों के सामने से गुज़र गए. ऐसा पहली बार हुआ हो ऐसा नहीं है, पर उस खाली बेंच को देखकर ना जाने क्यूँ लगा की वो मुझे बुला रही है. शायद इस आवाज़ को बहुत बार अनसुना किया था मैंने. इसीलिए आज वो ज्यादा तेज़ हो गयी थी.

बचपन में सोचा था बड़ा होकर केवल ऑफिस जाकर काम करना होगा और फिर छुट्टी में खाली समय मिलेगा अपने लिए - तब कहाँ पता था, कि बड़े होकर बच्चे की पढाई, स्कूल फीस का इंतजाम, घर के लोन की किश्त, कार लोन की किश्त, रोज़मर्रा की चीज़े इकट्ठी करने में ही कब रविवार से शनिवार आ जाएगा ये पता लगना तो दूर, सोचने की भी फुर्सत नहीं होगी. दिल्ली जैसे महानगर में और आज के आधुनिक समय में हमें दिन के २४ घंटे भी कम लगते हैं. अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लिए भी रात में अपनी नींद कम कर के समय निकालना पड़ता है.

कई बार ऐसे ही खाली बेंच के पास से गुज़रा हूँ, हर बार मैंने उसकी पुकार को अनसुना किया हो ऐसा भी नहीं है, पर मुश्किल से १०-१५ मिनट बाद कुछ न कुछ याद आ जाता है. और नहीं तो यही ख़याल आता है, कि क्यूँ यहाँ बैठ के समय ‘नष्ट’ कर रहा हूँ, कुछ काम ही निपटा दूं. और उस छोटी सी मुलाकात को और भी छोटा बनाकर वहाँ से उठ जाता हूँ. फिर कभी वापस आने का मन ही मन वादा कर के. मन में ये डर भी होता है - की शायद मैं उस बेंच को निराश ही करता रहूँगा, पर बाकी काम ज्यादा ‘जरूरी’ है ना!

तो इस आप धापी नें फिर से मजबूर किया है मुझे अपने सपनों को स्थगित करने के लिए. अब उस समय का इंतज़ार है, जब अपनी सब जिम्मेदारियां निपटा कर चैन से उस बेंच पर बैठकर उस सपने को पूरा कर सकूंगा. वो समय कब आएगा नहीं पता, आएगा भी या नहीं ये भी नहीं पता. जीवन का भरोसा किसे है. आज है कल नहीं. कभी कभी डर लगता है, कि कहीं मेरे साथ वो सपना मर ना जाए, और वो बेंच मेरा इंतज़ार ही करती रह जाए…